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Sunday, October 11, 2015

प्रकृति धर्म और प्रकृति संस्कृति


जीवन की समस्याओ का हल प्रकृति के असीमित संसाधनों में खोजा जा सकता है। सूर्य, चंद्र, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश में विद्यमान असंख्य पदार्थ प्राकृतिक संसाधनो को समृद्धिशाली बना रहै है, इनमें कभी कोई कमी नहीं आने वाली, यदि इनके उपयोग को सहज एंव सात्विक बनाया जाये, क्योंकि प्रकृति की चमत्कारी शक्ति का दुरूपयोग करने पर अनेक बार संकट प्रकट हुये। इसलिए प्रकृति की महान कृति मानव को उसके प्रति समर्पित होना पड़ेगा, तभी समस्याओं से छुटकारा मिल सकता है। प्रकृति को जननी मानकर सभी धारणाओं में परिमार्जन हो और ऐसी अवधारणाओं को त्यागना चाहिये जो प्रकृति के सिद्धांतो के विपरीत हो। प्रकृति की गोद हमारी माता की गोद की तरह सुरक्षित तथा आनंददायक है, इसके ममत्व का सुख उठाया जाए। इसका मौन प्रेम संसार की शांति का उद्रम है। प्रकृति के वात्साल्य को हम अनुभव नहीं कर पाते। पहाड़ों और समुद्रो में बहुतेरे यौगिक पदार्थ भरे पड़े है, जिनसे जीवन के संतापों को दूर किया जा रहा है। शारीरिक और स्नेहिल आंचल। इसी भू लोक में अमृत और विष दोनेा विद्यमान हैं। यही पर सब दुखों का समाधान उपस्थित है। प्रकृति के वरदानों से मानवता को धन्य किया जा सकता है, इसके लिये उत्कृष्ठ इच्छाशक्ति अनिवार्य है।
अज्ञानतावश लोग प्रकृति के सानिध्य से हट जाते है और कालांतर में दुखों के भागी बनते है। प्रकृति के महाभंण्डार मेंअनेक औषधीय शक्तियां है, जो रोग को शांत करने में सक्षम ह ै। प्रकृति को माता समझकर उनके यौगिक पदार्थो की खोज, शोधन या उपभोग की बात सोचनी चाहिये। प्रकृति का स्वरूप परमेश्वर की परमशक्ति का भौतिक आचरण है। इस भौतिक रूप के पीछे एक रहस्य छिपा है अधिभौतिक बीज का रहस्य। मन, चित, हृदय वेदना के हर स्पंदन में प्रकृति शक्ति फड़ापेन का दर्शन सुलभ रहना चाहिये।
यंहा के आदिवासियों/मुलनिवासियों का योग , परमयोग है।
पर्यावरण के साथ हमारा संबंध हमारे अनुभव की सर्वप्रथम और सब से महत्वपूर्ण परत है। अगर हमारा पर्यावरण स्वच्छ और सकरात्मक है तो हमारे अनुभव की बाकी सभी परतों पर इसका सकरात्मक प्रभाव पड़ता है, और वे संतुलित हो जाती हैं और हम अपने और अपने जीवन में आये व्यक्तियों के साथ अधिक शांति और जुड़ाव महसूस करते हैं। मनुष्य की मानसिकता के साथ पर्यावरण का एक नजदीकी रिश्ता है। प्राचीन समय की सभ्यताओं में प्रकृति को सम्मान के भाव से देखा गया है - पहाड़, नदियां, वृक्ष, सूर्य, चँद्र, पवन, अग्नि जब हम प्रकृति और अपनी आत्मा के साथ अपने संबंध से दूर जाने लगते हैं, तब हम पर्यावरण को प्रदूषित करने लगते हैं और पर्यावरण का नाश करने लगते हैं। हमे उस प्राचीन व्यवस्था को पुनर्जीवित करना होगा जिससे की प्रकृति के साथ हमारा संबध सुदृढ़ बनता है।
विश्व में गोंड़ी धर्म/प्रकृति धर्म ही प्रकृति सम्मत है, जो प्रकृति के अनुसार ही अपने संस्कार संचालित करते है, समाज के जिन विद्वानों ने प्रकृति के सम्मत जो कृति बनाई है उसे ही हम प्रकृति संस्कृति कहते है, देश में हम विभिन्न नामो से जानते है, जैसे गोंड़ी धर्म, सरना धर्म, प्रकृति धर्म, आदि धर्म विश्व में विख्यात जितने भी धर्म संचालित है, उन धर्मो को इस देश में जन्में विद्वानों ने बनाया है, सभी धर्मो का हम इतिहास में पढ़ते है, कि इतने ईषापूर्व इस धर्म की शुरूआत हुई लेकिन प्रकृति धर्म की शुरूआत प्रकृति के निर्माण से शुरूआत हुई है।

बाकी अगले अंक में ----- आपका हरी सिह मरावी




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